‘मैं’ और ‘है’
चेतस् योग: ‘मैं‘ और ‘है‘ के बीच के संघर्ष का समाधान प्रज्ञा विधि द्वारा
मानव जीवन में मूलभूत संघर्ष को समझना
मानव जीवन में उत्पन्न होने वाली सबसे मौलिक समस्याएँ—भावनात्मक संकट, मानसिक उथल-पुथल, अस्तित्व संबंधी दुविधाएँ— जीवन के दो पहलुओं के बीच संघर्ष कारण होती हैं:
स्व–अस्तित्व (‘मैं‘) – आत्म-केंद्रित, व्यक्तिगत अस्तित्व जो व्यक्तिगत अनुभवों, इच्छाओं, भय और संकीर्ण धारणाओं से निर्मित होता है।
जीवन–चेतना (‘है‘) – जीवन-केंद्रित, ब्रह्मांडीय चेतना जो व्यक्तिगत सीमाओं से परे कार्य करती है, और शुद्ध जागरूकता व प्रवाह का प्रतिनिधित्व करती है।
यह संघर्ष ‘मैं’ और ‘है’ के बीच होता है, जो पहचान, निर्णय लेने, संबंधों और समग्र कल्याण से जुड़ी समस्याओं के रूप में प्रकट होता है। ‘मैं’ नियंत्रण, आसक्ति और अतीत की धारणाओं से बंधा रहता है, जबकि ‘है’ स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होता है, अहंकारिक संरचनाओं से परे।
आस्तिक, नास्तिक या आध्यात्मिक समाधानों से परे
इस संघर्ष का समाधान न तो आस्तिक, नास्तिक या पारंपरिक आध्यात्मिकता में निहित है। बल्कि यह ‘मैं’ और ‘है’ के कार्यों को प्रत्यक्ष रूप से जानने और समझने में निहित है।
आस्तिक दृष्टिकोण समाधान को बाहरी शक्ति में खोजते हैं, जिससे विश्वास पर निर्भरता बन सकती है और प्रत्यक्ष अनुभव की कमी हो सकती है।
नास्तिक दृष्टिकोण किसी बड़े अस्तित्वगत सामंजस्य को नकार सकते हैं, केवल भौतिक व्याख्याओं पर केंद्रित रहते हैं, जिससे गहरी अनुभवात्मक समझ सीमित हो सकती है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण अक्सर केवल वैराग्य उत्कृष्टता पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे ‘मैं’ और ‘है’ के दैनिक जीवन में एकीकरण की आवश्यकता को नजरअंदाज किया जा सकता है।
चेतस् योग एक अनुभवजन्य समाधान प्रदान करता है, जो किसी भी विश्वास-आधारित प्रणाली पर निर्भर नहीं है। यह चेतना के कार्यप्रणाली को समझने और स्व-अस्तित्व (‘मैं’) और जीवन-चेतना (‘है’) के बीच एक संतुलित सामंजस्य स्थापित करने का मार्ग प्रदान करता है।
चेतस् योग का पथ: अनुभवजन्य सामंजस्य।
चेतस् योग वह प्रक्रिया है जिसमें ‘मैं’ को ‘है’ के साथ प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा जोड़ा जाता है, केवल बौद्धिक समझ से नहीं। इसका उद्देश्य ‘मैं’ को दबाना या मिटाना नहीं है, बल्कि सजगता, संतुलन और सामंजस्य लाना है जिससे स्वयं-केंद्रित और जीवन-केंद्रित अस्तित्व के बीच सही तालमेल बैठ सके।
वाओ सेंटर (होल वॉन्सेल्फ वेलबिंग सेंटर) ने इस अनुभवात्मक एकीकरण को सुगम बनाने के लिए (PRAGYA) प्रज्ञा विधि विकसित की है।
(PRAGYA) प्रज्ञा: संपूर्ण स्वयं कल्याण की छह–चरणीय प्रक्रिया।
(PRAGYA) प्रज्ञा एक क्रमबद्ध दृष्टिकोण है, जो व्यक्ति को अहंकार–प्रतिक्रिया से सजगता–आधारित जीवन में बदलने में सहायता करता है।
1. ठहरें (Pause) – स्वचालित प्रतिक्रियाओं को क्षणिक रूप से रोकें और वर्तमान क्षण में सजगता लाएँ। यह संकीर्ण मानसिक धारणाओं और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को बाधित करता है।
2. विचार करें (Reflect) – किसी भी स्थिति को ‘मैं’ (आत्म-केंद्रित दृष्टिकोण) और ‘है’ (जीवन-केंद्रित जागरूकता) दोनों के दृष्टिकोण से देखें। यह आंतरिक संघर्ष और अर्जित धारणाओं को पहचानने में मदद करता है।
3. क्रिया करें (Act) – बीते हुए संस्कारों के अनुसार प्रतिक्रिया देने के बजाय, सामंजस्य के साथ उत्तर दें—विचारों, भावनाओं और कार्यों को वर्तमान क्षण की गहरी समझ के अनुरूप समायोजित करें।
4. आगे बढ़ें (Go) – कर्मों के परिणामों के प्रति आसक्ति के बिना आगे बढ़ें। यह तनाव और भय-आधारित निर्णय लेने को कम करता है।
5. समर्पण करें (Yield) – जीवन के स्वाभाविक प्रवाह में आत्मसमर्पण करें, प्रयास और स्वीकृति के संतुलन पर विश्वास रखें।
6. पूर्णता प्राप्त करें (Achieve) – बाहरी परिणामों से परे, आंतरिक संतोष का अनुभव करें, जो संपूर्ण स्वयं कल्याण की ओर ले जाता है।
चेतस् योग का परिवर्तनकारी प्रभाव
जब (PRAGYA) प्रज्ञा का निरंतर अभ्यास किया जाता है, तो ‘मैं’ और ‘है’ के बीच का आंतरिक संघर्ष समाप्त हो जाता है। मन विखंडन से समग्रता की ओर, पीड़ा से स्पष्टता की ओर बढ़ता है। जीवन अब एक अचेतन संघर्ष नहीं रहता, बल्कि एक सजग, सामंजस्यपूर्ण अनुभव बन जाता है जहाँ:
भावनात्मक अशांति आंतरिक शांति में बदल जाती है।
निर्णय लेने की प्रक्रिया स्पष्ट और संतुलित हो जाती है।
संबंध अहंकार–आधारित आवश्यकताओं से बदलकर वास्तविकता पर आधारित हो जाते हैं।
व्यक्ति अनावश्यक प्रतिरोध से मुक्त होकर सहज प्रवाह में जीता है।
निष्कर्ष: सामंजस्यपूर्ण जीवन जीना
चेतस् योग केवल एक सैद्धांतिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक, अनुभवजन्य मार्ग है। (PRAGYA) विधि को अपनाकर, व्यक्ति एक सजग, एकीकृत जीवन जी सकता है, जहाँ ‘मैं’ और ‘है’ संघर्ष में नहीं, बल्कि सामंजस्य में होते हैं।
यही संपूर्ण स्वयं भलाई का सार है—एक ऐसी अवस्था जहाँ व्यक्ति स्वयं-केंद्रित अस्तित्व के भ्रम में फंसा नहीं रहता, बल्कि जीवन-चेतना की व्यापक लय के साथ संरेखित होता है।